About Rawna Rajputs

रावणा राजपूत इतिहास --------------------- क्षत्रिय वर्ण से विभक्त राजपूत और रावणा राजपूत की उत्पत्ति - वर्ण व्यवस्था से पूर्व ऋषि मुनियों ने अपनी सुरक्षा के लिए कबीलों (विशेष वर्ग समूह) को सुरक्षा के लिए अपने आस पास खड़ा किया और परखा, जो समूह इनकी सुरक्षा के कार्य में खरे उतरे उन्हें क्षत्रिय वर्ण का घोषित कर दिया और स्वयं अपने आप को बुद्धिजीवी मानकर ब्राह्मण वर्ण के कहलाये। जब वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित होकर कर्म के आधार पर जातियों में विभक्त होने लगी तो क्षत्रिय वर्ण से जुड़े कई समूह और जातियाँ शूद्र वर्ण में समाहित होने लगी और उच्च वर्णों द्वारा इनका शोषण भी होने लगा। क्षत्रिय वर्ण से निकल कर सबसे बड़ी जाति राजपूत बनी, जिसका भी आगे चलकर सामाजिक और शेक्षणिक आधार पर विघटन हुवा और इन विघठित भूमिहीन राजपूतों के समूहों को सामंतकाल से ही पद सूचक जाति नाम देने का प्रयास किया गया जैसे दरोगा, हजूरी, वजीर, कोठारी, भण्डारी आदि। लेकिन उनीसवीं शताब्दि के उत्तरार्द्ध में राजपूतों से अलग यह सभी पदसूचक जातिनाम समूह एकजुट होकर रावणा राजपूत कहलाने लगे। आगे चलकर भारत सरकार के प्रथम ओबीसी आयोग (काका कालेलकर आयोग) व मण्डल आयोग ने रावणा राजपूत को जाति के रूप में ओबीसी की सूची में सम्मिलित किया। रावणा समाज की कुलदेवियाँ रावणा समाज में गोत्रानुसार राजपूत समाज की कुलदेवियाँ ही परम्परानुसार पूजी जाती हैं, रावणा राजपूत कोई अलग जाति नहीं है, यह केवल आर्थिक भेद से उत्पन्न एक शाखा या समूह है। रावणा राजपूतों के संत - रावणा जाति में अनोपदास नामक समाजसुधारक सन्त हुए। उनकी प्रेरणा से रावणा जाति में विधवा-विवाह, पर्दाप्रथा-उन्मूलन आदि सुधार प्रवृत्तियों की शुरुआत हुई फलस्वरूप रूढ़िवादी समृद्ध व प्रभावशाली राजपूत समाज में रावणा समाज के प्रति लगाव में कमी आई। किन्तु गरीब राजपूतों का रावणा समाज में अधिकाधिक प्रवेश होने से इस समाज की संख्या तेजी से बढ़ी। हैसियत – आधारित सगपण भी गरीब राजपूतों की रावणा समाज के प्रति उन्मुखता का कारण रहा। मारवाड़ राज रिपोर्ट सन् 1891 खण्ड 2 में लिखा है – ‘ऊँचा सगपण बड़ी हैसियत वाले से बन पड़ता है’ ज्यों-ज्यों गरीब होता जाता है त्यों-त्यों उसका संबंध नीचे होता जाता है, यहाँ तक कि नातरायत के दर्जे में पहुँच जाता है। लेकिन जब फिर तरक्की करने लगता है और बढ़ता-बढ़ता जागीरदार हो जाता है तब वह अपनी बेटी को फिर उन्हीं गनायतों (समृद्ध राजपूतों) में परना सकते हैं जिन्होंने उसे त्याग दिया था। इस प्रकार रावणा (आर्थिक तौर पर कमजोर) तथा गनायत (आर्थिक तौर पर समृद्ध) के बीच केवल आर्थिक भेद है। यह अलग जाति नहीं है। रावणा राजपूत की अवधारणाऐं आर्य संस्कृति के अनुसार - प्राचीनतम आर्य संस्कृति के क्षत्रिय वर्ण का मुख्य दायित्व सुरक्षा एवं शासन करना था। सुरक्षा की दृष्टि से शत्रुओं से युद्ध करके राज्य के अस्तित्व को बनाये रखना और प्रजा की रक्षा करना तथा शासन की दृष्टि से प्रजा की सेवा करना क्षत्रियों का परम कर्तव्य था। ये ही क्षत्रिय वर्ण के लोग अनगिनत जातियों में विभक्त हो गए। राजपूत जाति उनमें से एक है। आर्य संस्कृति के चारों वर्ण में से जब क्षत्रिय वर्ण भिन्न-भिन्न जातियों में विभाजित होने लगा, तब हिन्दू संस्कृति का प्रादुर्भाव हुआ। आज जाति व्यवस्था हिन्दू धर्म के प्रमुख लक्षणों में से एक महत्वपूर्ण लक्षण है। जिसमें ऊँच-नीच, छूत-अछूत जैसी कई बुराईयाँ व्याप्त है। परम्पराओं के अनुसार - प्राचीनकाल में राजा के अनेक पुत्र होते थे और राजपूतों में राज्य विभाजन नहीं होता था। अतः राजा का ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य का उत्तराधिकारी होता था और वह राजा कहलाता था। उसके शेष पुत्र राजा के पुत्र होने के कारण राजपुत्र कहलाते थे। कालांतर में राजपुत्र शब्द समूह वाचक या जातिवाचक बन गया और राजपूत कहलाने लगे। पिता की मृत्यु के बाद बड़ा भाई तो राजा बन गया और शेष छोटे भाई राजा की ही सेवा में विभिन्न पदों पर कार्य करने लगे राजा भी महत्वपूर्ण एवं जिम्मेदारी वाले पदों पर अपने विश्वसनीय एवं वफ़ादार लोगों को ही रखता था और उसके छोटे भाइयों से बढ़कर विश्वसनीय और वफ़दार अन्य कौन हो सकता था ? अतः राज्य के श्रेष्ठ और महत्वपूर्ण पदों यथा जैसे - राजस्व की वसूली करना, सेना का नेतृत्व करना, राज्य के विद्रोह को दबाना, राजा का विश्वसनीय अंगरक्षक, रनिवास की चैकीदारी करना आदि-आदि कार्य उसी के छोटे भाई करते थे। “इस प्रकार राजा का बड़ा पुत्र तो उत्तराघिकारी होने से राजपूत बन गया और उसी के छोटे भाई रावल कहलाने लगे। यह ’रावल’ एक पदवी होती थी और ’रावल’ का रूप बिगड़कर ’रावला’ हो गया और इसी का अपभ्रंस ’रावणा’ हो गया। मर्दुमशुमारी रिपोर्ट के अनुसार - मर्दुमशुमारी रिपोर्ट 1891 ई. में 'राजपूत की जाति जमीन से है’ यानि के किसी भी भूमिहीन राजपूत ( दरोगा, हजुरी, वज़ीर, कोठारी, भंडारी, कामदार, हवलदार व फौजदार आदि मर्दुमशुमारी रिपोर्ट के अनुसार) के पास जमीन होने से उसे राजपूत मान लिया जाता है। मारवाड़ी कहावत “पहली पीढ़ी ठाकर ने, तीजी पीढ़ी चाकर ने“ जब अच्छी जमीन जागीर मिल जाती तब यह पर्दा कायम कर राजपूत कहलाते व जिनकी जमीन जागीर नहीं रहती तब यह हलके राजपूत जाति के कहलाते यानि भूमिहीन राजपूत जो पर्दा कायम नहीं रख पाते थे। मुता नैणसी जो की मारवाड़ के दीवान वि. स. 1700 में थे उन्होंने मारवाड़ निवासियों के घरों की गिनती वि. स. 1726 (सन 1659 ई.) में करायी थी। उस घर गिनती की तालिका में ब्राह्मणों से लेकर भंगी के घरों तक का विवरण तालिका में है। लेकिन क्षत्रियों की सेवक जाति जिन्हें दरोगा, हजुरी, वज़ीर आदि से जाना जाता है का कहीं भी विवरण नहीं है यह उक्त नाम तो टॉड कृत राजस्थान या बाद में मर्दुमशुमारी रिपोर्ट-1891 ई. में जाति के रूप में सुनने को मिले जिन्हें अंग्रेजों का नया आविष्कार भी कहा जा सकता है वरन यह शब्द तो पदवी (दरोगा, हजुरी, वजीर आदि) हुआ करती थी और अहूवा ठाकुर के किस्से के बाद गोल के सामन्त का अपभ्रंश होकर गोला या गोली को गाली के रूप में सम्बोधित किया जाने लगा। इस प्रकार उपर्युक्त किए गए विवेचन से स्पष्ट होता है कि रावणा राजपूत वर्ग से सम्बन्ध रखने वाले पद सूचक जातिनाम दरोगा, हजुरी, वज़ीर, कोठारी, भंडारी, कामदार, हवलदार व फौजदार आदि कोई जाति नहीं अपितु पदवी थी। मध्ययुगीन राजस्थान के जीवन काल में शासक व सामंतों के अलावा शासन व प्रशासन में कुछ महत्वपूर्ण ओहदेदारों की भूमिका भी थी। उस व्यवस्था में रावणा राजपूत नाम की जाति राजपूत जाति में से निकलने वाली अंतिम जाती है, जिसकी पहचान के पदसूचक नाम या ओहदों को हम दरोगा, हजुरी, वज़ीर, कामदार, हवलदार, फौजदार, कोठारी व भंडारी आदि नाम से जान सकते हैं। राजपूत जाति से अलग पहचाने जाने वाली इस रावणा राजपूत जाति का प्रारंभिक काल मुग़ल शासन है। भारत में अंग्रेजी शासन के उस काल में जबकि अनेक समाज सुधार आंदोलन चल रहे थे और देश में स्वतंत्रता के लिए कांग्रेस का आंदोलन ज़ोर पकड़ने लगा था, तब बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में आर्य समाज की विचारधारा और कार्यकलापों से ओतप्रोत इस जाति के बुद्धिजीवी वर्ग में अरबी और फ़ारसी भाषा के शब्दों से निज जाति की पहचान कराने वाले उपरोक्त जातिसूचक नामों को नकार दिया था और विशुद्ध हिंदी भाषा रावणा राजपूत नाम से इस जाति की पहचान कराने का अभियान शुरू किया गया। श्री पन्नेलाल सिंह जी का मत - रावणा शब्द की उत्पत्ति ’रंगला’ शब्द से भी मानी जाती है, जिसका अर्थ है - युद्ध भूमि में लड़ने वाला। भ्रांतियाँ और निवारण में पन्नालाल सिंह चौहान लिखते हैं रावणा शब्द ’रंगला’ शब्द से बिगड़ कर अपभ्रंस होना पाया जाता है। संस्कृत साहित्य के कोश में ’रंगला’ शब्द मिलता है रंग का अर्थ रंग-भूमि का है और ला का अर्थ पकड़ने वाले यानि प्राप्त करने वाले का है, अर्थात् रंगला के मायने रंग-भूमि को पकड़ने वाला यानी युद्ध में वीरता से लड़ने वाला। इस रंगला से ’रंगड़ा’ और इस रंगड़ा से ’रांगड़ा’ इस मत से यह भी पुष्टि हो जाती है कि यह वर्ग प्रवर, वीर योद्धा तथा मर्यादा प्रिय था। इसी कारण राजा की सुरक्षा का दायित्व तथा राज-काज के उच्च पदों पर निगरानी का काम इस वर्ग के पास था। वैसे भी राजपूत गुणों से माना जाता है, जाति से नहीं। इस प्रकार कालातंर में क्षत्रिय वर्ण का एक ही राजपूत वर्ग दो भागों में विभक्त हो गया। एक भूमिवाले राजपूत और दूसरे भूमिहीन राजपूत (रावणा राजपूत)। इन दोनों वर्गों के मध्य विभाजन इतना बढ़ गया कि वे अपने ही समकक्ष घरानों में विवाह संबंध बनाने लगे। इस प्रकार भूमिहीन राजपूत अपने ही समकक्ष अर्थात् रावले में ऊँचे पदों पर अवस्थित परंतु भूमिहीन राजपूतों से ही अपने रोटी-बेटी के संबंध बनाने लगे। परंतु जब इन भूमिहीन राजपूतों के पास भूमि आ जाती थी या यह किसी जागीरदार के गोद आने से जागीरदार बन जाते तो ये भी भूमि वाले राजपूत कहलाते और इनके सामाजिक एवं वैवाहिक सम्बन्ध राजपूतों में ही भूमि वाले राजपूत वर्ग से होते थे। फिर ये रावणा राजपूत या भूमिहीन राजपूत न कहलवाकर राजपूत या भूमिवाले राजपूत कहलाने लगते थे। श्री जय सिंह जी बघेला का मत - रावणा-राजपूत-मीमांसा नामक पुस्तक में ठाकुर जयसिंह बघेला लिखते हैं कि, रियासतकाल में राजा, राणा, महाराणा आदि शासकीय उपाधियों की तरह राव भी राजवर्गीय उपाधि थी। राव उपाधि से रावत, रावल, रावणा आदि कई जातियाँ बनीं। राव शब्द के साथ ‘णा’ प्रत्यय जुड़ने से (राव+णा) रावणा शब्द बना। “रावणा शब्द का अर्थ राजपूत (क्षत्रियत्व बोधक) समूह के वर्ण बोधकार्थ लगाया जाता है और ‘णा’ का अर्थ भाववाचक मानें तो राजपूती भाव वाला, क्रियावाचक मानें तो रावोक्त क्रिया वाला और जातिवाचक मानें तो राजपूत जाति वाला होता है। अतः उपरोक्त बनावटों पर ध्यान दें तो रावणा शब्द राजपूत शब्द का पर्यायवाची ही सिद्ध होता है। ” विकिपीडिया में रावणा राजपूतों के बारे में इस प्रकार वर्णन किया गया है – “रावणा राजपूत एक उप क्षत्रिय है जो सामंत काल में भूमि ना रहने से पर्दा क़ायम न रख सके और अन्य राजपूत जो शासक व जमीदार या जागीरदार थे ने इन्हें निम्न दृष्टि से देख इनपर सामाजिक एवं शारीरिक अत्याचार किये तथा इन पर विभिन्न प्रथाओं को क़ायम कर इनका सामाजिक शोषण किया।…..कालांतर में राजपूत जाती में भी अनेक जातियां निकली। उस व्यवस्था में रावणा राजपूत नाम की जाति राजपूत जाति में से निकलने वाली अंतिम जाती है, जिसकी पहचान के पूर्वनाम दरोगा, हजुरी वज़ीर आदि पदसूचक नाम है।…..रावणा शब्द का अर्थ राव+वर्ण से है अर्थात योद्धा जाति यानी की राजाओं व सामंतों के शासन की सुरक्षा करने वाली एकमात्र जाति जिसे रावणा राजपूत नाम से जाना जाए। इस नाम की शुरुआत तत्कालीन मारवाड़ की रियासत के रीजेंट सर प्रताप सिंह राय बहादुर के संरक्षण में जोधपुर नगर के पुरबियों के बॉस में सन 1912 में हुई है। जिस समय इस जाति के अनेकानेक लोग मारवाड़ रियासत के रीजेंट के शासन और प्रशासन में अपनी महत्वपूर्ण भागीदारी निभा रहे थे।” उल्लेखनीय है कि ‘णा’ प्रत्यय से पुष्कर+णा = ‘पुष्करणा’, बाफ+णा = बाफणा आदि अनेक जातिवाचक संज्ञाएं बनी हैं जो राजपूत जाति की शाखाएँ हैं। राजपूतों की रावणा शाखा वस्तुतः विभिन्न राजवंशों का समूह है। विभिन्न राजवंशों के राव (शासक) मुस्लिम शासकों से निरन्तर संघर्ष करते हुए राज्यहीन हो गए। उनकी सन्तानें मुस्लिम-साम्राज्य की अधीनस्थ राजपूत रियासतों में दरोगा पदों पर नियुक्त हुए। ठा. जयसिंह बघेला के अनुसार 'दरोगा' डिपार्टमेन्ट के अफसर को कहा जाता था। इस कारण रावणा, दरोगा भी कहे जाने लगे। वीरेन्द्र रावणा का मत - आर्य लिपि के अनुसार रावणा शब्द का अर्थ राव+वर्ण से है अर्थात योद्धा जाति यानी की राजाओं व सामंतों के रियासतों की सुरक्षा करने वाली एकमात्र जाति जिसे रावणा राजपूत नाम से जाना जाए। रावणा राजपूत जाति नाम की शुरुआत सन 1912 में तत्कालीन मारवाड़ की रियासत के रीजेंट सर प्रताप सिंह राय बहादुर के संरक्षण में राजपूतों से भिन्न पदसूचक जातिनाम से पहचान रखने वाले समूह के बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा जोधपुर नगर के पुरबियों के बॉस से की गई। उस समय इस जाति के अनेकानेक लोग मारवाड़ रियासत के रीजेंट के शासन और प्रशासन में अपनी महत्वपूर्ण भागीदारी निभा रहे थे। स्मरण रहे की सर प्रताप सिंह राय बहादुर, आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती से बहुत प्रभावित थे और आर्य समाज जोधपुर के प्रथम संस्थापक प्रधान भी थे। रावणा राजपूत क्षत्रिय वर्ण से विभक्त राजपूत जाति का वह समूह/ वर्ग है जो रियासतकाल में भूमि न रहने पर पर्दा प्रथा कायम नहीं रख पाया। इसलिए रियासतों और ठिकानों में सेवक के विभिन्न उच्चस्थ पदों (दरोगा, हजुरी, वजीर, कोठारी, भण्डारी, हवलदार, कोतवाल आदि) पर रहकर या कृषक के रूप में अपने परिवार का जीविकोपार्जन किया। रावणा राजपूत गौरवशाली क्षत्रिय वर्ग का वह समाज है, जो देश-प्रेम, त्याग, वीरता, मर्यादा, प्रियता एवं देश सेवा भाव के कारण अपना पृथक अस्तित्त्व रखता है। राजपूतों के इस वर्ग का अपना गौरवशाली अतीत एवं इतिहास है। आज यह नवसृजित नाम मारवाड़ की सीमाओं को लांग कर राजस्थान के अनेक ज़िलों में प्रचलित है। The meaning of Rawna (Ravana) is from RAV + VERNA, it is the only caste to protect the princely states of the warrior race, which is known as Rawna Rajput. This name came to existence in 1912 in the Jodhpur city progeny under the patronage of Sir Pratap Singh Rai Bahadur, the regent of the Marwar state. Rawna Rajput is a group / class of Rajput caste divided by Kshatriya, they can't maintain the certain practice and they have no land in their possession. Therefore, living in princely states and places, but livelihoods of their family's they were dependent on working as a farmer and posted in different positions like (Daroga, Hazuri, Wazir, Kothari, Bhandari, Havaldar, Kotwal etc) in the princely states. Rawna Rajput is a society of glorious Kshatriya class, which keeps its separate existence due to love for their motherland renunciation, bravery, dignity, affection and country service. This class of Rajputs has its own glorious past and history. Today this newly created names are prevalent in many districts of Rajasthan by beyond the boundaries of Marwar. यदि इस नाम की व्यापकता का आंकलन किया जाए तो काका कालेलकर आयोग और मंडल आयोग ने भी अपनी प्रथम व व्दीतीय रिपोर्ट में भी रावणा राजपूत नाम को जाति के रूप में पुष्टि की है और केंद्र तथा राज्य सरकार ने अन्य पिछड़ा वर्ग की सूचि में सम्मिलित किया है। इस नाम से इस जाति की नयी पुरानी पहचान छुपी हुई है। सच माने में यह जाति सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक एवं राजनीतिक दृष्टि से अत्यंत पिछड़ी हुई जाति है। वीरेन्द्र रावणा द्वारा विश्लेषण - जब उन्नीसवीं शताब्दी में राजपूताने में विदेशियों का आवागमन हुआ तब उन लोगों में इस देश के निवासियों के बाबत ज्ञान पैदा करने के अभिप्राय से उनके जातिय रिवाज़ व मुल्क़ि रिवाजों की बाबत छानबीन की तब दुर्भाग्यवश इन लोगों ने झूठे कवियों तथा मक्कार लेखकों की कृतियों को आधार मान कर जानबूझकर क्षत्रिय वर्ण से निकली कई जातियों की मान-हानि की। उन लेखकों में प्रथम स्थान कर्नल जेम्स टॉड का है। यह सन 1799 की 17 मार्च को 27 वर्ष की आयु में भारत आये, 9 जनवरी 1800 ई. को गोरी रेजिमेंट नंबर 2 में भर्ती हुए और 1826 तक सर्विस में रह कर उन्होंने कर्नल पद प्राप्त किया। उसके पश्चात 1818 ई. में राजपूताने के पॉलिटिकल एजेंट नियुक्त होकर फरवरी सन 1818 में उदयपुर व अक्टूबर 1818 ई. जोधपुर आये। सन 1822 ई. में वापस विलायत चले गये। बाद में इन्हीं टॉड महोदय ने संदिग्ध सामग्री को आधार मान कर क्षत्रियों की संतान को क्षत्रिय होते हुए भी राजपूतों को मिश्रित जाति माना और इस वर्ग को पद सूचक शब्दों से विभक्त कर मनगढंत अपमानित परिभाषाएं लिखी व अपनी अज्ञानता और नीचता का प्रमाण दिया। इन्हीं के आधार पर अन्य अंग्रेज लेखकों ने कई गजेटियर लिखे व इसके पश्चात भारतीय लेखकों ने भी इन्हीं को आधार मानकर अपनी मूर्खता का प्रमाण दिया और 1891 ई. में तैयार हो रही ’मारवाड़ जनगणना रिपोर्ट - 1891’ या मर्दुमशुमारी रिपोर्ट में ईर्ष्या द्धेष से तैयार परिभाषाओं का समावेश कर अपने लेख छाप डाले। आपत्तिजनक तथ्यहीन इतिहास - रावणा राजपूत जाति जो उस कालखण्ड में प्रचलन में भी नहीं आयी उसे वर्तमान अनुवादकों ने मर्दुमशुमारी रिपोर्ट में गोला और चाकर के साथ जोड़ दिया और तो और तथाकथित इतिहासकारों ने अज्ञानता की सीमा को लांघते हुए दरोगा, वजीर, हजुरी जैसी उच्चस्त पदवीयों को चाकर , गोला और ख्वास शब्दों से सम्बोधित किया है। वस्तुतः ये सारे तथाकथित इतिहासकार लकीर के फ़कीर हैं क्योंकि एक विदेशी अज्ञानी इतिहासकार ने बिना सोचे-समझे, राजमहलों में बैठकर, यहाँ के परिवेश को बिना देखे राजपूताने का इतिहास लिख दिया और उस इतिहास में इस वर्ग को गोला, स्लेव शब्द से संबोधित किया। वह इतिहासकार लिखता है - The hundred Goals on........ The sons of Rajput. कर्नल टॉड ने बिना किसी शोध और सशक्त प्रमाण के दरोगा के लिए ’स्लेव’ शब्द का प्रयोग किया है। जबकि ’स्लेव’ शब्द का अर्थ है - दास, गुलाम, सेवक के अर्थ में लिया है। जबकि शब्दकोशों के अनुसार दास, गुलाम और सेवक शब्द के भिन्नार्थ हैं। इन्हें एक शब्द में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार दरोगा, वजीर, हजुरी तथा ख्वास शब्दों के अपने विशिष्ट अर्थ होते हैं परंतु तथाकथित अज्ञानी इतिहासकार इन शब्दों का अर्थ जाने बिना इनका प्रयोग करते जा रहें हैं। कुछ पदवियों को लेकर भ्रांतियां और उनका निवारण कर्नल जेम्स टॉड कृत राजस्थान गजेटियर व बाद में स्थानीय स्वार्थी व मक्कार लेखकों एवं इन्हीं के आधार पर तैयार मारवाड़ जनगणना रिपोर्ट - 1891 ई. या मर्दुमशुमारी में भूमिहीन और पिछड़े राजपूतों पर इनकी पदवियों के साथ कुछ पासवानों की मन गढंत व ईर्ष्या द्धेष से तैयार परिभाषाओं का समावेश कर इन्हें राजपूत (क्षत्रिय) वंश से अलग थलग करने के प्रयास किया गया और कुछ हद तक सफल भी हुवे। इन्ही पदवियों की वास्तविक परिभाषाएं निम्नानुसार है - रजपूत : मुता नैणसी द्वारा हस्तलिखती ख्यात जो वि. स. 1700 में लिखी गयी। उसके अनुसार जो नौकरी, सिपहगिरी आदि साधारण कार्य करने वाले व सामान्य स्थिति वाले क्षत्रिय। दरोगा : यह एक ’पद’ हुआ करता था। जितने भी कारखाने (सरकारी विभाग) थे वे सब जिन वफादार लोगों के पास पीढ़ी दर पीढ़ी रहा करते थे उन्हें ’दरोगा’ कहा करते थे इनकी देख रेख में दरीखाना (सभा भवन), तबेला, ताशखाना, सिलाईखाना, रसोड़ा, बग्गीखाना, गउखाना, फीलखाना, शतुरखाना, फर्राश खाना, पालकी खाना तथा मर्दानी व जनानी ड्योढ़ी इत्यादि के कार्य वफादारी व ईमानदारी से हुआ करते थे। इस प्रकार राज्य (हाउस होल्ड) में जितने भी विभाग हैं वे सब दरोगा के अधिकार में रहा करते थे और ये काम इनके पुश्तैनी होने से पीढ़ी दर पीढ़ी भी रहा करते थे। यह एक सम्माननीय उच्चस्थ पदवी है। दरोगण : दरोगा की स्त्री, जो अन्य सेवा करने वाली साधारण स्त्रियों की अध्यक्षता किया करती थी। यह एक सम्माननीय पदवी है। हजूरी : हाज़रिये अर्थात हर वक़्त राजाओं की सेवा में उपस्थित रहने वाले हाज़रीन। यह एक सम्माननीय पदवी है। वज़ीर : यह एक महत्वपूर्ण पद है जो राजा के सलाहकार के रूप मे मुख्य राज्य कार्यकर्ता को कहते हैं। यह एक सम्माननीय पदवी है। ख्वास : यह एक पदवी है जो राजा के ख़ास एवं निकटतम व्यक्ति को मिला करती थी वैसे यह पदवी ज्यादातर ’नाई जाति’ के लिए प्रचलित है जो राजाओं के नाई थे। लेकिन सामान्यतः अन्य जाति के लोगों को भी यह पदवी राजा दिया करते थे जो बहुत कम लोगों को व्यक्तिशः मिली हो यह पदवी उनके किसी ख़ास कार्य के लिए ही मिलती थी। गुजरात में आज भी यह भूमिहीन राजपूतों के लिये प्रयुक्त होती है। यह एक सम्माननीय पदवी है। भंडारी (बडारी) / कोठारी : राजाओं महाराजाओं के काल में अन्न व खाद्य सामग्री के कोठार हुआ करते थे उनके उचित देख-रेख के लिए यह कार्य भी अक्सर पुश्तैनी ही किया जाता था। इसमें कोई भी जाति का व्यक्ति हो सकता था अधिकतर वैश्य या राजपूत ही होते थे जिन्हें बाद में ’कोठारी’ भी कहा जाता था या ’भंडारी’ भी कहते थे इन्हीं शब्दों के प्रचलन से भंडारी से बडारी शब्द का जन्म हुआ वैसे इस कार्य को उचित दर्ज़े का माना जाता था। यह एक सम्माननीय पदवी है। बडारण : भंडारे के कार्य करने वाली स्त्री को भंडारण या बडारण कहते थे। यह एक सम्माननीय पदवी है। डाबड़ी : मारवाड़ व ढूंढाड़ में ’डाबड़ी’ कंवारी लड़की को कहते हैं। ये किसी भी जाति की कंवारी लडकी के सम्बोधन मे उपयोग आता है। परडायत/ पासवान : राजरानियों व ठकुरानियों द्वारा खरीदे जाने वाली वह कुंवारी लडकियां जो किसी भी गरीब जाति की होती थी बाद में इनको गाने बजाने का काम सिखाया जाता था। एक-एक रानी के पास 40 या 50 कुंवारी लडकियां होती थी जिन्हें मारवाड़ में तालीवालियें, जयपुर में अरवाडे, बूंदी में धाया श्री कहते थे। यह महिलाओं का वह वर्ग है जो जागीरदार की शादी में डायजवाल के रूप में आने वाली उन महिलाओं से सम्बंधित है जो उसके मालिक यानिकि विवाहित पुरुष (राजा या जागीरदार) की वह खास रनिवास बनती थी। जिसे उप पत्नी का दर्जा मिलता था। इसे खवासन भी बोलते थे। जब इसे पांव में सोने के आभूषण पहिनने की स्वीकृति मिलती तो यह पासवान का दर्जा पाती थी। पासवान रखना एक परम्परा थी और इसकी भी एक प्रक्रिया होती थी, जो बाद में सभी को स्वीकार्य होती। राजमहल में पासवान का सम्बन्ध सिर्फ उसी विवाहित पुरुष से रहता था जिसके डायजे में वह आयी थी और इन्हें पर्दा भी कायम करना पड़ता था। राजमहल के किसी भी समारोह में इनकी बैठक महारानी से नीचे रहती थी और रानियों से ऊपर होती थी। इनकी संतानों का भरण पोषण पूरे ठाट बाट से होता था, इनकी कम उम्र की लड़कियों को 'डावरी' कहते थे। इनको अन्य गरीब व अन्य जाति की लड़कियों के साथ पुनः दहेज के रुप में भी भेजा जा सकता था या किसी भी गोला से विवाह कर के वहीं रख लिया जाता और इन पासवानों के पुत्रों को उच्चस्थ पदों पर रखा जाता या जागीर देकर किसी भी गांव का जागीरदार बना दिया जाता था या इन्हीं पासवानों या पड़दायतों की संतानों को ही ’गोद’ लेकर भी जमीदारी, जागीरदारी बांटने के सेंकडों उदहारण हैं या इनके पुत्र जिन्हें राजगद्दी मिलने पर 'राव राजा' भी कहा जाता था। यह राजा के उतने ही निकट होते थे जितनी अन्य रानियां व उनके पुत्र। चाकर : यह मारवाड़ी भाषा का शब्द है चाकर शब्द को राजा महाराजा अपनी भाषा में बातचीत या पत्रव्यवहार के लिए भी सम्बोधित करने में लाते थे। इस शब्द के अन्य मतलब नौकर, हाली, सर्वेंट, सेवक, दास आदि भी है। चाकरी (सेवा) करने वाले किसी भी जाति के हो सकते थे जैसे- जाट, माली, गुर्जर, नाई आदि ये सब चाकर ही कहे जाते थे अर्थात जो लोग चाकरी का मुआवजा (नौकरी का मूल्य अर्थात मासिक वेतन) नगद या वास्तु से लेते थे चाकर कहलाते थे। यह निम्न स्तर की पदवी है। गोला गोली : यह जाति नहीं बल्कि कर्म है, अरबी भाषा में इसे गुलाम भी कह सकते हैं। विदेशी भाषा में गोल उसे कहते हैं जो बेईमानी करता है छली-कपटी होता है, नमक हराम होता है, बेवफा होता है, चोरी चकारी करता है, उपकार भुला के अपकार करता है और बिना किसी कारण के किसी को हानि पहुंचाता है। जिसके यह कर्म होते हैं वही गोला कहलाता है। चाहे वे किसी भी जाती के स्त्री पुरुष हों। अब यह एक गाली है। (गोला शब्द के गाली में तब्दील होने के पीछे अहुवा ठिकाने का किस्सा मशहूर है) ख्वास पासवान/ छूट का चाकर : कुछ चकारी करने वालों को 'छूट का चाकर' भी कहा जाता था ये बे-रोक-टोक महलों में राजाओं महाराजाओं के पास चाहे वे पौढ़े हो, सोते हो, अरोगते हो, नहाते हो, चाहे किसी भी हालत में हो, जा सकते थे इसलिए ’ख्वास पासवान’ या ’छूट का चाकर’ कहलाते थे। रियासत काल की परम्परा एवं प्रथाऐं जाति के संदर्भ में मान्यता जाति प्रथा जब से प्रारम्भ हुई है तब से जाति ’वीर्य’ से ही मानी जाती रही है। क्षत्रिय राजाओं और ब्राह्मण ऋषि मुनियों ने समय - समय पर कामात्तुर होकर किसी भी वर्ण (जाति) की स्त्री से कामाग्नि को शांत करने के अभिप्राय से विषय भोग किया और उस स्त्री से जो संतान उत्पन्न हुई, वह क्षत्रिय तथा ब्राह्मण ही मानी गयी जिन्हें शुद्ध जाति या वंश का माना जाता था। उदहारणार्थ महाभारत आदि पर्व 100 अध्याय से 106 अध्याय तक देखिये गंधवती (सत्यवती) के विषय में लिखा है की यह एक दास कन्या थी व रूपवती भी थी यह नांव चलाने का कार्य करती थी। एक समय ऋषि पराशर उसकी नांव में बैठे और उनसे मोहित होकर कामात्तुर हो गए। इस दशा में उन्होंने नांव में ही उससे सम्भोग कर अपनी कामाग्नि को शांत किया। इस संयोग से गंधवती गर्भवती हुई तथा अपने गर्भ से ऋषि वेदव्यास को जन्म दिया जो ब्राह्मण कहलाये। यही गंधवती भीष्म पितामह की प्रेरणा से राजा शांतनु की रानी बनी व दो पुत्रों विचित्रवीर्य व चित्रांगद को जन्म दिया जो शुद्ध क्षत्रिय (राजपूत) कहलाये। इस घटना से ज्ञात होता है की स्त्री किसी जाति या समुदाय की हो उसके पुत्रों की जाति पुरुषों से ही निर्धारित होती है। स्त्री की जाति पहले से निश्चित नहीं होती अर्थात भविष्य में उसका कौन वर होगा किस जाति का होगा। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो यह एक असहाय स्त्री का शोषण मात्र है जिसे प्रोत्साहित करके उपयोग में लाया गया। भाई-बिरादरी का सम्बन्ध स्वामी और सेवक में कैसे तब्दील हुआ? मुगलकाल में, राजपूत राजाओं ने भी मुग़लों की मनसबदारी प्रथा का अनुकरण करते हुए , अपने सामन्तों की श्रेणी , पद और प्रतिष्ठा का निर्धारण करने का तय किया। परिणाम स्वरूप कुलीय भावना पर आधारित भाई - बिरादरी अब स्वामी और सेवक में परिवर्तित हो गई। मेवाड़ में महाराणा अमर सिंह द्वीतिय (1698-1710 ई.) ने अपने सामन्तों को तीन श्रेणियों में किया जो आगे चलकर क्रमशः ’सोलह’ , ’बत्तीस’ और ’गोल’ के सरदार कहलाये। प्रथम श्रेणी के सामन्तों को सामान्य रूप से ’उमराव’ कहा जाता था । महाराणा अमर सिंह द्वीतिय के काल में इनकी संख्या 16 थी किन्तु उन्नीसवीं सदी के अन्त तक इनकी संख्या 24 तक पंहुच गई । व्दितीय श्रेणी के सदस्यों की संख्या प्रारम्भ में 32 थी , अतः वह ’बत्तीस’ कहलाए। तृतीय श्रेणी के सरदारों की संख्या कई सौ थी , अतः उन्हे गोल के सरदार कहा जाता था। महाराणा ने इन सभी सरदारों को उनकी जागीरों का पक्का पट्टा प्रदान कर , उनके पट्टों के लिए रेख कायम कि थी। सामन्तों द्वारा दी जाने वाली सेवाएँ (चाकरी) तथा सामन्तों की तलवार - बंधाई आदि के नियम भी बनाए गये। आगे चलकर यही सामन्त अलग - अलग रियासतों मे कई अलग अलग पद्वियों से जानने लगे जैसे मारवाड़ में इनकी चार श्रेणियाँ बनी राजवी , सरदार , मुत्सदी , गनायत इनकी परम्पराएँ और कार्य विभाजन समय के साथ - साथ होते चले गए। सभी सामन्तों को दरबार में निश्चित स्थान पर बैठाने का कार्य उस सभा भवन (दरीखाना) के दरोगा का होता था। यहीं से सामन्तों की गोल श्रेणी का नाम किसी एक सेवक के सम्बोधन में गोला रखा गया जिसका दूसरा अर्थ गुलाम /सेवक /चाकर से भी है। यह किसी भी जाति - बिरादरी के हो सकते थे। गोल के सामन्त से गोला या चाकर और अब यह एक गाली कैसे बनी? गोल के सामन्त व्यवस्था की तीसरी श्रेणी मानी जाती थी जिसमें चाकरों की संख्या सौ से ज्यादा बढ़ने से यह अनगिनत हो गए और आगे चलकर इनका भी विभाजन किया जाये तो यह कई उपाधियों/ पद्वीयों में विभक्त होते चले गए प्रायः ये किसी भी वंश या कुल के हो सकते थे। इसी सामन्तों की तीसरी श्रेणी ’गोल’ से आम चाकरी करने वाले को गोला या चाकर भी कहा जाने लगा । यह शब्द आम बोल - चाल में किसी एक व्यक्ति के उद्भोदन के रूप में गोला के रूप में भी प्रयुक्त होने लगा जिसे शुद्ध भाषा में चाकर या गुलाम भी कहा जाने लगा । मर्दुमशुमारी रिपोर्ट - 1891 के अनुसार गोला - चाकर की कुल जनसंख्या 60812 में से पुरूष 32082 व महिला 28730 थी । इस रिपोर्ट के नये संस्करण में गोला - चाकर से उच्चस्थ पदवियों दरोगा , हजुरी , वजीर आदि को रावणा से जोडकर कर इस गोला शब्द से पीड़ित होना बताया गया । जबकि रावणा शब्द का प्रार्दुभाव तो 1904 - 1912 में हुआ इसका मतलब इस रिपोर्ट की मूल लेखनी में भी बदलाव होकर रावणा शब्द को बाद में जोडा़ तो निश्चित रूप से दरोगा , हजुरी , वजीर आदि पदवियों को भी इसमें बाद ही में जोडा़ गया हो। इस मूल ग्रंथ में एक तरफ राजपूतों की सभी गोत्रों की अलग से गणना है और संख्या भी और दरोगा , हजुरी , वजीर आदि राजपूतों का कहीं वर्णन नहीं इससे यह साफ जाहिर होता है कि इतिहास में छेड़छाड़ कर बाद में इन पदसूचक जातियों को गरीब और भूमिहीन राजपूतों पर थोपा गया इनका मनगढ़ंत इतिहास बनाया गया , जो कहीं पर भी स्पष्ट न होकर गोलमाल हो जाता है । बाद में 1931 ई. की राजपूताना की जनसंख्या में गोला की जगह दरोगा को जाति के रूप में दर्शाया लेकिन हजुरी , वजीर , रावणा (जोकि 1904 से प्रचलन में आ गया) आदि वहां भी नहीं है । इससे यह स्पष्ट है कि एक बहुत बडे़ गरीब व भूमिहीन राजपूत वर्ग (रावणा राजपूत) की जनसंख्या के आंकड़ों और इतिहास को छुपाने का प्रयास किया गया। और मात्र एक गोला - चाकर की जनसंख्या के आंकड़ों का प्रकाशन कर इन्हें दरोगा से भीअलग पहचान देने का भी प्रयास किया गया। मर्दुमशुमारी राजमारवाड़ 1891 ई. के एक उदाहरण से मालूम होता है कि गोला या चाकर कहा जाने वाला शब्द गाली कैसे बना - “गोला घणा नजीक रजपूतां आदर नहीं उण ठाकर री ठीक रण में पड़सी गजिया“ इसकी तसदीक़ में ठिकाणे आहुवे की मिसाल दी जाती है जहां का एक ठाकुर गोलों को बहुत खातिर में रखता था , वह एक दफै़ लड़ाई में ज़ख़्मी होकर गिरा तो गोले सब से पहिले भागे और एक गोला ठाकुर की घोड़ी पर चढकर आहुवे में यह खबर ले गया कि ठाकुर काम में आ गये , वहाँ रोना पीटना पड़ गया और ठुकरानियों नें चूड़े फोड़ डाले क्योंकि गोला का बहुत भरोसा था मगर कुछ देर पीछे ठाकुर भी अपने रजपूतों की मदद से जीते जगते आ गये और गोले का यह अवगुण देखकर कहा कि आयंदे गोलों को घोड़ा देने की तलाक है उस दिन से आहुवे में गोले घोड़े पर नहीं चढ सकते थे। श्री दरबार की फौज में भी गोले नौकर नही हो पाते हैं इस बात की बडी़ छानबीन होती है। आज के परिपेक्ष में यह किस्सा हास्यास्पद है कि एक गोले की गलती ने सभी गोलों का भविष्य खतरे में डाल दिया और एक फौजी या सैनिक बनने के लायक भी नहीं छोड़ा और यह गोला शब्द हरामख़ोरी व लापरवाही का प्रतिक बन गया तो फिर दरोगा, हजुरी, वजीर आदि महत्वपूर्ण पदवियों का इस गोला या चाकर शब्द से सम्बन्ध कैसे हो सकता है। चूंकि गोला तो राज में नौकरी ही नहीं कर सकता था तो फिर महत्वपूर्ण पदों पर कैसे आ सकता था जैसा कि हमारे मक्कार लेखकों ने अपनी पुस्तकों में गोला को दरोगा भी कहा है, जो यहां उपरोक्त अहुवा ठिकाने के किस्से से स्वतः ही गलत साबित होता है। यह एक गम्भीर विचारणीय विषय है जो इतिहास पर बहुत बडे़ षडयंत्र की ओर इशारा तो कर ही रहा है, अपने आप में संदेह भी उत्पन्न कर रहा है। घरेलू दास प्रथा - मध्यकालीन राजस्थान में, जागीरदारों में घरेलू दास प्रथा प्रचलित थी। ये घरेलू दास किसी भी जाति के वह गरीब होते थे जो इनके कर्जदार होते जो कर्ज न चुका पाते थे, यह वंशानुगत सेवक भी होते थे इनमें वह भूमिहीन राजपूत भी सम्मिलित होते जिनकी पत्नियां जागीरी नहीं रहने पर घरेलू आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु काम करती थी और पर्दा कायम नहीं कर पाती। कुछ महिलाएं इनके यहां कर्जे के बदले दासी के रूप में भी सेवाएं देती थी। इन्हें चाकर, चेला, धाय, बडारन बाई और इनके बड़े समूह को गोला व गोली भी कहते थे। यह एक निम्न प्रकार की पदवी थी, जो आगे चलकर (अहुवा ठिकाने के किस्से के बाद) गाली के रूप में प्रयुक्त होने लगी। वशी यानी चोटी कट प्रथा - जब मुल्क़ में अराजकता पैदा होकर सरदारों, उमरावों एवं जागीरदारों का दौर-दौरा (यानी ’जिसकी लाठी उसकी भैंस’) शुरू हुआ तब से इन क्षत्रियों को उनकी ज़मीन न रहने के कारण उदर पोषण के निमित्त जो भाई-चारे तथा दबाव से सत्तावान क्षत्रियों की सेवा करते थे उनको अन्याय से अपनी पैतृक संपत्ति मानकर पैतृक सेवक जाति बता कर के भ्रान्ति फैलाई। यहाँ तक ही इस अन्याय की समाप्ति नहीं हुई षट्दर्शन को छोड़कर अन्य जितनी भी जातियां महाजन से लेकर धोबी चमार तक को सामंतवादी क्षत्रिय लोगों ने जबरन अपनी मिल्क़ियत मान कर एक ऐसी प्रथा क़ायम की थी जो वशी यानी चोटी कट प्रथा के नाम से प्रसिद्व थी जो कुछ दंड (हानि अर्थात मुआवजा) लेंगे उसे देकर जाना होगा। यदि इस फैसले के विरुद्ध जाऊँगा तो आपका अपराधी बनूँगा। सामंतवाद के दबदबे एवं भय से इस प्रकार की लिखत को उस समय की अदालतें भी मानती थी और इस पर न्याय भी करती थीं। इस प्रथा का प्रचलन सामंत काल से ही था यानी उन्नीसवीं सदी या अठारवीं शताब्दी में महाराजा मान सिंह जी के वक़्त भी था। उदहारणार्थ मुतों में मशहूर खानदान श्री अखैचन्द जी का है ये पहले ठाकुर आहोर का काम करते थे। महाराजा मान सिंह जी ने इनकी योग्यता देखकर ठाकुर से मांग लिया और उनकी वशी निकलवाकर अपना मुसाहिक बनाया (मर्दुमशुमारी रिपोर्ट सन 1891 ई. पेज 418) यह इसी वशी (चोटी कट) प्रथा का कठोरता का नमूना है की महाराजा मान सिंह जी ने श्री अखैचन्द जी को आला मुसाहिक बनाने के लिए ठाकुर से माँगा और वशी निकलवाई। यदि वशी निकलवाए बिना ले लेते तो अराजकता बढ़ जाती। चोटी कट प्रथा के पीछे सामन्तवादियों की सोच - वशी (चोटी कट) प्रथा के अनुसार प्रत्येक सामंतवादी क्षत्रिय प्रत्येक जाति को अपनी मिल्क़ियत समझते थे और इसी के आधार पर भूमिहीन राजपूतों को इन क्षत्रियों ने पैतृक सेवक जाति बता दास प्रथा क़ायम करनी चाही और अप्रत्यक्ष रूप से लागू भी की। इस षड़यंत्र का परिणाम यह है की मर्दुमशुमारी रिपोर्ट 1891 ई. में उक्त सारे उदहारण जो पदों से आगे दिए गए इन्हें बढ़ा चढ़ा कर लिखा और इन्हें एक अलग जाति जो राजपूतों से बिलकुल भिन्न हो, करना चाहते थे। इस षड़यंत्र में अंग्रेज लेखकों ने देशी लेखको के सहयोग से भेदभाव और उंच-नीच को आधार बनाकर इऩ सामन्तवादियों पर अंग्रेजों ने राज किया। अन्यथा यह देश कभी अंग्रेजों का ग़ुलाम नहीं रहता। एक शक्तिशाली जाति को अंततः दो भागों में विभक्त होना ही पड़ा इसके लिए उस समय का वातावरण और परिस्थितियां ही ऐसी थीं और वर्तमान में पूर्णतया सम्पूर्ण राजनीती में यह जाति राजपूत व रावणा राजपूत के रूप में विभक्त हो चुकी है। चोटी कट प्रथा से दीन प्रजा को मुक्त कराने में महाराजाधिराज के प्रयास - भूमिहीन राजपूत और कर्ज से दबी अन्य पिछड़ी जातियों को दास प्रथा से मुक्त कराने में मारवाड़ के महाराजाधिराज श्री सर जसवंत सिंह जी साहब ने विक्रम संवत 1940 (सन 1887 ई.) के क़रीब मारवाड़ का क़ानून बनवाकर ’वशी प्रथा’ व ’दास प्रथा’ दोनों का अंत किया जिसके बाद सामंतवादी क्षत्रियों ने वापस समय पाकर इन प्रथाओं को दूसरे रूप में सन 1916 ई. में हरा-भरा करने का प्रयास किया। जिसे वापस हमारे श्री सर उम्मैद सिंह जी साहब बहादुर ने सन 1921 ई. में नोटिफिकेशन नं. 11939 तारीख 21-04-1926 के द्वारा समूल रद्द कर अपनी दीन प्रजा को सामंतवादी जमीदारों से मुक्त किया। वि. स. 1943 ई. और सन 1987 ई. पूर्व, फौज में पुरबिये, सिख, जाट और देसी मुसलमान आदि ही भर्ती किये जाते थे। राजपूतों की भर्ती किंचित मात्र ही थी। लेकिन सन 1889 में मारवाड़ नरेश ने राजपूतों की माली हालत को समझते हुए एक फरमान निकला की आइंदा सरकारी फौज में देसी राजपूत ही भर्ती किये जाएँ। सन् 1918 ई. से इस हुक्म की तामिल शुरू हुई। सरदार, रिसाला और इंफेक्ट्री की नवीन भर्ती शुरू हुई जिसमे राजपूत व भूमिहीन राजपूत दोनों को योग्यतानुसार सामान पदों पर भर्ती किया गया। हाथदान/ साढ़े तीन फेरे - ’पासवान’ शब्द महिलाओं के लिए ही उपयोगी था। उनकी संतान भी राजा महाराजाओं की संतान ही कहलाती थी सिर्फ गद्दी पर बैठने या उत्तराधिकारी का अधिकार ही नहीं था इसलिए कई बार पासवानों की सन्तान के जन्म से पूर्व उस पासवान का राजा या जागीरदार उसके ही दरोगे से 'साढ़े तीन फेरे' करवा कर हाथदान (विवाह की प्रक्रिया) कर देता अर्थात इस विवाह में वह दरोगा उस पासवान के पुत्र का पिता तो है पर उस पासवान को पत्नी के रूप में नहीं रख सकता। इसके अलावा उस दरोगा का स्वयं का परिवार अलग होता था। यह एक रिवाज़ था। पावों में सोना पहनना - राजा महाराजाओं के काल में वही औरतें पावों में सोना पहनती थीं जो उनकी महारानी या रानियां हों, बाद बिन ब्याहे किसी कुंवारी लड़की को राजा की खास बनाते थे तो वह बाद में राजा के पास परदे में अन्य रानियों की तरह रहती थी तथा उस पर पर्दा कर दिया जाता था जिसे पासवान का दर्जा होता। यह एक रिवाज़ था। जागीरें किसे और क्यों ? जागीरदारों (सामन्तों) का प्रमुख कार्य लगान के जरिए रियासतों के खजाने भरना। यानीकि स्वामी को चाकरी के जरिए सेवाएं देकर अपनी आय करना। इस परम्परा से ही सामन्तकाल का प्रारंभ हुआ। ठिकाने (जागीरें) राजपरिवारों के कुल/वंश/जाति या करिबी लोंगो, रिस्तेदारों, पासवानियों/पडदायतों की गोद ली सन्तानों को ही मिला करते थे, जिससे इनका गुजर-बसर ठिक से चल सके। इनका सामाजिक सम्मान बना रहे। इन ठिकानेदारों (जागीरदारों) को आय के हिसाब से ही, गांव (जागीर) संख्यात्मक रूप से घटाए बढ़ाए जाते थे या यह कह लें की जागीरी के हिसाब से आय देना और आय के हिसाब से ओहदे पर रखना। इस प्रकार ठिकानेदारों (सामन्तो) को राजस्व वसूली और गांवों के हिसाब से ओहदे तय हुआ करते थे। यहाँ महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि एक शासक के लिए सामन्त जैसे महत्वपूर्ण पद पर कौन रहे ? क्योंकि यहि सामन्त आगे चलकर शासक भी चुना करते थे। इसिलिये जो वफादारी/ईमानदारी से कार्य कर सके वही सामन्त। प्रथम तो स्वयंम् के कुल/वंश/गोत्र का हो या फिर रिस्तेदार। दूसरे वो जो पासवान/ पड़दायतों से गोद आए और स्वंय का वंशज भी। गोद क्यों लिए जाते थे ? और पासवानों के ही क्यों ? पासवानियों को महारानी के बाद का व रानी से उपर का दर्जा था। इनकी सन्तानें शासकों से ही उत्पन्न होती थी, लेकिन यह सन्तानें उत्तराधिकारी न बने इसलिए पैदा होने से पूर्व ही इन पासवानों के दरोगा से या फिर शासक के निकटतम व्यक्ति से, इनका हाथदान कर दिया जाता था, क्योंकि शासक नहीं चाहता था कि, पासवान किसी ओर की पत्नी बनकर रहे, इसलिए इस हाथदान के विवाह में आधे फैरे (साढ़े तीन फेरे) ही होते थे, ताकि होने वाले बच्चे को सिर्फ पिता का नाम मिल सके। इस बच्चे का भाग्य देखिए, जब ये पढ़ लिखकर काबिल हो जाता तो, इसकी माँ यानिकि पासवान, शासक से उसके लिए जागीर मांगती थी और शासक उसे अपने करीबी या भाई बन्धुओं के गोद लिवाते और इस तीसरे बाप से इसका भाग्योदय सामन्त के रूप में होता, लेकिन इस नाजायज़ की पहचान मात्र ठिकाने या जागीर से ही हुआ करती थी। असलियत तो यही थी। कुछ लेखकों ने इतिहास में पासवान की संतान से ठाकुर बनने तक के घटनाक्रम को, जो कि राजा या जागीरदार की पासवान से उत्पन्न नाजायज संतान के किस्से को दरोगा के साथ जोड़ने का प्रयास किया जो बिल्कुल भी उचित नहीं है एवं तत्थात्मक भी नहीं है और ऐसा इतिहास मे कोई प्रमाण या किस्सा भी नहीं है और तो और इन लेखको ने कालान्तर मे राजपूतों को भी ब्राह्मणों से उत्पन्न होना बता दिया और रावणाओं को राजपूतों से उत्पन्न होना बता दिया। अब यहि जानना बाकि है कि इन इतिहासकारों की उत्पति किनसे हुई । शासक के द्वारा पैदा संतान ही अलग जाति के रूप में यदि दरोगा (जोकि पदवी है) या गोला (जोकि मात्र गाली है) कही जा सकती है तो फिर कोई भी किसी को कुछ भी कह सकता है। आमजन तय करे कि - नाजायज़ कौन होते है ? क्या ऐसी सन्तानें नाजायज़ होती है जिनके जन्मदाता का सभी को पता हो ? या फिर वो नाजायज है जो अपने नाजायज़ कृत्यों को रश्म - रिवाजों की आढ़ देकर उत्तराधिकार से वंचित रखते है ? इतिहास है या षडयन्त्र ? हमारे शास्त्रों के अनुसार वर्ण व्यवस्था जब कर्म आधारित थी तो व्यक्ति अपने जन्म के बाद शिक्षा पूर्ण कर के करमों के आधार पर ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र श्रेणी या वर्ग प्राप्त कर लेता था । जब यही वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित हुई तो व्यक्ति जन्म से उसी वर्ण की श्रेणी या वर्ग में रहने लगा। उदाहरणार्थ यदि वह ब्राह्मण कुल में जन्म ले और अवगुणी है तो भी ब्राह्मण कहलाने लगा और वह शूद्र कुल में जन्म ले और कितना ही गुणवान हो तो भी शूद्र ही कहलाया। आगे चलकर यह जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था सफल नहीं हो पाई और ब्राह्मण और वैश्य वर्ण जैसे सम्पन्न वर्गों को छोड़कर क्षत्रिय और शूद्र वर्ण कर्मों के आधार पर फिर से जातियों में विभक्त होने लगा। यहाँ विचारणीय बिन्दु तो यह है कि, आज के रेवेन्यू रिकोर्ड में ब्राह्मण और वैश्य वर्ग की गोत्र के आगे जाति क्रमशः ब्राह्मण और वैश्य ही है लेकिन क्षत्रिय और शूद्र माने जाने वाली गोत्रों के आगे जाति के रूप में क्षत्रिय और शूद्र न लिखकर विभिन्न जातियाँ राजपूत, रावणा राजपूत, कुम्हार, सूनार, नाई, जाट, रैगर, बलाई लिखा है। क्या इन वर्णों का नाश हो गया या इतिहासकारों ने इन्हे किसी श्रृषि - मुनि की कलम से इतिहास से तो मिटाया ही , रेवेन्यू रिकोर्ड से भी गायब कर विभिन्न जातियों में बांट दिया। आज सैंकड़ों जातियों में बंटे समाजों को छूत - अछूत और ऊंच - नीच जैसी कुरूतियों के दमन का इन्तजार है। हमारे द्वारा षडयन्त्र पूर्वक लिखे गये इतिहासों में संशोधन कर समाजों के मूल इतिहास से उसके स्वाभिमान की अलख जगाकर भाईचारे की स्थापना से ही हम सब राष्ट्र के विकास की बात कर सकते हैं। आजादी से पूर्व कुछ भारतीय व अंग्रेज लेखकों ने जातियों एवं वंशावलीयों के लेखन में कई जातियों को ग्लानियुक्त/ अशोभनीय शब्दों के साथ अपमानजनक परिभाषाओं से परिभाषित कर लज्जित करने का षडयन्त्र पूर्वक प्रयास किया । और हमारी जाति “रावणा राजपूत“ के सन्दर्भ में आज भी यह प्रयास पाठ्यक्रमों में अभी भी अनवरत रूप से जारी है । निश्चित रूप से यह एक सुनियोजित षडयन्त्र ही है । जानिए कुछ लेखक और प्रकाशकों द्वारा रावणा राजपूत समाज को किस प्रकार से अशोभनीय परिभाषाओं से षडयन्त्र पूर्वक लज्जित किया गया । जिसे वीरेन्द्र रावणा द्वारा तथ्यात्मक अध्ययन के बाद निम्नानुसार संदेहास्पद और गलत पाया - 1. डाॅ. कालूराम शर्मा व डाॅ. प्रकाश व्यास द्वारा लिखित और पंचशील प्रकाशन , जयपुर द्वारा प्रकाशित राजस्थान के इतिहास का सर्वेक्षण में पृष्ठ संख्या 278 पर सामन्तों की श्रेणियाँ , पद और प्रतिष्ठा में भाई बिरादरी से स्वामी और सेवक की प्रक्रिया का वर्णन है। यह पुस्तक इतिहास पर आधारित अध्ययन के लिए है इस में किए गये वर्णन का समयकाल अमर सिंह द्वीतिय 1698 से 1710 है जिसमें राजपूत राजाओं ने मुगलों की मनसबदारी प्रथा का अनुकरण करते हुए सामन्तों को तीन श्रेणी में विभक्त किया जो आगे चलकर क्रमशः सोलह, बत्तीस और गोल के सरदार कहलाए इनमें तीसरी श्रेणी के सरदारों की संख्या कई सौ होने से ये “गोल“ के सरदार कहलाए । महाराणा ने इन सभी सरदारों को उनकी जागीरों का पक्का पट्टा प्रदान कर , उनके पट्टों के लिए रेख कायम कि थी । सामन्तों द्वारा दी जाने वाली सेवाएँ (चाकरी) तथा सामन्तों की तलवार - बंधाई आदि के नियम भी बनाए गये । आगे चलकर यही सामन्त अलग अलग रियासतों मे कई अलग अलग पद्वियों से जानने लगे जैसे मारवाड़ में इनकी चार श्रेणियाँ बनी राजवी , सरदार , मुत्सदी , गनायत इनकी परम्पराएँ और कार्य विभाजन समय के साथ - साथ होते चले गए । सभी सामन्तों को दरबार में निश्चित स्थान पर बैठाने का कार्य उस सभा भवन (दरीखाना) के दरोगा का होता था। यहीं से सामन्तों की गोल श्रेणी का नाम किसी एक सेवक के सम्बोधन में गोला रखा गया जिसका दूसरा अर्थ गुलाम /सेवक /चाकर से भी है । जो वर्ग या व्यवस्था से अभिप्राय रख सकते है। मर्दुमशुमारी रिपोर्ट 1891 के अनुसार आहुवा ठिकाने में एक गोले की गलती के उदाहरण से यही गोला शब्द गाली में तब्दील हो गया। आगे के उदाहरण और तथ्यों में स्पष्ट है कि इन्हीं लेखक महोदय ने अनुवादक के रूप में सन्दर्भित पुस्तक संख्या 2 में गोला के लिए क्या लिखा और स्वयं की पुस्तक में कुछ भी नहीं लिखा दूसरी और अन्य सन्दर्भित पुस्तकों में तो नकलकारों ने कैसे गोला के उदाहरण दरोगा या रावणा पर थोपे। 2. अनुवादक डाॅ. कालूराम शर्मा द्वारा लिखित कर्नल जेम्स टाॅड कृत राजस्थान का इतिहास के पंचम् संस्करण 2013 और श्याम प्रकाशन , गीतांजलि अपार्टमेंट , 1926 , नाटाणियों का रास्ता , जयपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक के पेज नम्बर 88 पर सिर्फ गोला शब्द पर टिप्पणी है। यह पुस्तक एक अँग्रेज लेखक द्वारा लिखी गई जिसमें गोला शब्द पर ही गुलाम व सेवक का वर्णन कर इतिश्री कर दी गई और रावणा या दरोगा का कहीं वर्णन तक नहीं है। जबकि जेम्स टाॅड के पुराने संस्करणों में दरोगा को राजपूतों की नाजायज़ औलाद बताकर लज्जित किया गया जो वर्तमान परिपेक्ष्य में एक भड़काऊ व लज्जित करने वाली टिप्पणी मात्र है। लेकिन नये संस्करणों में दरोगा , हजुरी , वजीर , रावणा का “गोला या सेवक“ के साथ में कहीं वर्णन तक नहीं है और न ही इन पदवियों का जाति के रूप में वर्णन है। क्योंकि इस पुस्तक पर हमारे द्वारा पूर्व में भी आपत्ति की गई थी। जिसके फलस्वरूप नये संस्करणों में दरोगा की परिभाषा को हटा कर अनुवादक ने भूल सुधारने का प्रयास किया है जो इस पुस्तक के सन्दर्भ में प्रशंसनीय है। 3. रायबहादुर मुंशी हरदयाल सिंह व प्रस्तावक जहूर खाँ मेहर द्वारा लिखित और महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश शोध केन्द्र, जोधपुर द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट मरदुमशुमारी राजमारवाड़ 1891 के तीसरे संस्करण (2010) में पृष्ठ संख्या 558 पर गोला या चाकर के साथ रावणा को जोड़कर संदेहास्पद टिप्पणी की। यह पुस्तक 1891 में लिखी गई और इसके तीसरे संस्करण में “रावणा“ शब्द का प्रयोग किया गया , जबकि यह जाति नाम 1904 से 1912 के बीच में प्रचलन में आया। अतः हमारी जाति के सन्दर्भ में इस संस्करण में लिखी गई परिभाषा सुनियोजित षडयन्त्र है। इस अध्याय का विषय “गोला या चाकर“ है जो जाति नहीं है। इस अध्याय में दरोगा , हजुरी , वजीर जैसी उच्चस्थ पदवी को मारवाड़ी और अरबी भाषा के आम बोलचाल के शब्दों डावडी , मानस , बडारण , गोला , पासवान के साथ जोड़कर लज्जित करने का प्रयास मात्र है जबकि यह शब्द तत्कालीन व्यवस्था से सम्बन्ध रखते है । इनका रावणा राजपूत वर्ग से कोई सम्बन्ध नहीं है। यह गोला या चाकर या पदवी जाति कैसे हो सकते है ? 4. डाॅ. कैलाशनाथ व्यास व देवेन्द्र सिंह गहलोत द्वारा लिखित और राजस्थानी ग्रन्थागार, सोजती गेट, जोधपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक राजस्थान की जातियों का सामाजिक एवं आर्थिक जीवन के पेज नम्बर 149 पर दरोगा (रावणा) को गलत परिभाषित किया। इस पुस्तक में दरोगा (रावणा) की परिभाषा में बिन्दु संख्या 3 की सन्दर्भित पुस्तक की गोला / सेवक की परिभाषा को शुध्द कर हूबहू मढ़ दिया जो मक्कारी व मुर्खता का ही नमूना है । साथ ही बाजारू पास बुकों की नकल और इनकी घटिया मानसिकता का प्रतिक है । 5. लाजपतराय भल्ला व कुलदीप भल्ला द्वारा लिखित और कुलदीप पब्लिशिंग हाऊस, जयपुर द्वारा प्रकाशित मेधांश - राजस्थान सामान्य अध्ययन के पृष्ठ संख्या 251 पर रावणा राजपूतों के लिए गलत टिप्पणी की। इस प्रतियोगिता पुस्तक में दास प्रथा पर टिप्पणी करते हुए दरोगा (पदसूचक जातिनाम) या रावणा राजपूत जाति को ही गोला या चाकर से जोड़कर टिप्पणी की है । जबकि यह प्रथा प्रत्येक गरीब और कर्जदार जाति पर लागू रही चाहे वो किसी भी जाति/ समुह/ वर्ग का हो। इस बाजारू पुस्तक द्वारा एक जाति विशेष पर की गई टिप्पणी भडकाऊ तो है ही , किसी जाति विशेष को पदसूचक और अपभ्रंशी शब्दों के साथ जोडकर अपमानित करने का प्रयास भी है। 6. एम ए फाइनल इतिहास मध्यकालीन राजस्थान पेपर तृतीय के लिए राजस्थान बुक डिस्ट्रीब्यूटर्स, चौड़ा रास्ता, जयपुर द्वारा प्रकाशित सुपर वन वीक सीरीज़ के पृष्ठ संख्या 172 पर एवंम राज प्रकाशन मन्दिर, चैडा़ रास्ता, जयपुर द्वारा प्रकाशित स्टैण्डर्ड पास बुक्स के पेज नम्बर 230 पर रावणा राजपूतों के लिए पाठ्यक्रम से हटकर गलत टिप्पणी। इन सुपर वन विक सीरीज़ व स्टैण्डर्ड पास बुक्स में पाठ्यक्रम से हटकर विवादास्पद सामग्री डाली गई है। जबकि यह पाठ्यक्रम मध्यकालीन राजस्थान का इतिहास एवं संस्कृति 1200 से 1761 तक पुस्तक से है। इस पुस्तक में दास प्रथा से सम्बन्धित अध्याय नहीं है। फिर भी दरोगा जैसी पद्वी को गोला शब्द के साथ जोडकर फिर रावणा राजपूत जाति शब्द से जोडा़। जबकि रावणा राजपूत जाति नाम इस कालखण्ड में जाति के रूप में प्रचलित होना सम्भव ही नहीं है। 7. प्रो. हेत सिंह बघेला द्वारा लिखित और रिसर्च पब्लिकेशन्स, जयपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक मध्यकालीन राजस्थान का इतिहास (1200-1761) में कहीं पर दास प्रथा या दरोगा या रावणा का वर्णन नहीं है इस पुस्तक के अध्ययन के बाद उपरोक्त सन्दर्भित बिन्दु संख्या 5 व 6 का औचित्य समझ से परे है। जबकि बिन्दु संख्या 5 व 6 से सम्बन्धित प्रतियोगिता व पास बुक्स में अनावश्यक गलत पाठ्यक्रम जोड़कर रावणा राजपूत जाति /समाज पर गलत टिप्पणी कर जानबूझकर षडयन्त्र पूर्वक लज्जित करने का प्रयास किया। उपरोक्त सन्दर्भित पुस्तकों की परिभाषाओं में समयकाल व शब्दों को लेकर नकल के प्रयासो में आपसी - विरोधाभास है। कुछ शब्दों का अपभ्रंश है तो कुछ जाति विशेष पर षडयन्त्र का प्रयास भी है। पासबुकों में तो पाठ्यक्रम से हटकर अनावश्यक जाति विशेष पर टिप्पणी की है अर्थात यह एक सुनियोजित षडयन्त्र मात्र ही है। जो राजस्थान की छः फिसदी आबादी को खुली चुनौती दे रहा है। हमारी जाति “रावणा राजपूत“ की पहचान का इन परिभाषाओं से कोई भी तथ्यात्मक सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि कर्नल जेम्स टाॅड के आगमन के बाद ही एक मात्र दरोगा शब्द को ही जाति के रूप में थोपा गया था। और टाॅड की प्रथम लेखन सामग्री 1832 में प्रकाशित हुई जबकि 1200 से 1761 के मध्यकालीन इतिहास में दरोगा शब्द जाति के रूप में प्रयुक्त नहीं था और विभिन्न महत्वपूर्ण कार्यसम्पादन हेतु एक पद्वी के रूप में प्रयुक्त होने लगा था। राजस्थान में वर्तमान में रावणा-राजपूत जाति को कई पद सूचक जाति नामों से जाना जाता है , जो इस प्रकार है - दरोगा, हजूरी, वजीर, कोठारी, भण्डारी हवलदार व कोतवाल, आदि। जबकि 1931 की जनगणना में मात्र दरोगा की ही गणना है। यहाँ पर भी इस रावणा राजपूत वर्ग के साथ विभेद किया गया । इस घटनाक्रम का विवेचन मात्र इसलिए है कि रावणा राजपूत जाति/ वर्ग के साथ प्रारम्भ से ही षडयन्त्र चलता आ रहा है । चाहे वो इस वर्ग की परिभाषा का मामला हो या जनसंख्या का। पडदायत , पासवान , गोला , चाकर , ठाकर , जागीरदार , बान्दी , ठिकानेदार , डाबडी आदि व्यवस्था से सम्बन्धित वह अपभ्रंश शब्द है जो रावणा राजपूत जाति से कोई सम्बन्ध नहीं रखते है। और न ही यह शब्द गोत्र या जाति के प्रयाय हैं। अतः हमारा अनुरोध है कि ऐसी पुस्तकों और लेखन सामग्रियों को रावणा राजपूत के सन्दर्भ में प्रतिबन्धित कर इतिहास एवंम परिभषाओं को राज्य /केन्द्र सरकारों की पहल से सरकारों द्वारा गठित शोध संस्थानों द्वारा संशोधित करवाया जावे ताकि किसी को भविष्य में लज्जित न होना पडे। - वीरेन्द्र रावणा ------------------------------------------------------------------------------ संकलन एवंम् सन्दर्भ: 1. रायबहादुर मुंशी हरदयाल सिंह व प्रस्तावक जहूर खाँ मेहर द्वारा लिखित और महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश शोध केन्द्र , जोधपुर द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट मरदुमशुमारी राजमारवाड़ 1891 के तीसरे संस्करण (2010) से 2. डॉ. कालूराम शर्मा व डॉ. प्रकाश व्यास द्वारा लिखित और पंचशील प्रकाशन , जयपुर द्वारा प्रकाशित राजस्थान के इतिहास का सर्वेक्षण पुस्तक से 3. अनुवादक डॉ. कालूराम शर्मा द्वारा लिखित कर्नल जेम्स टॉड कृत राजस्थान का इतिहास के पंचम संस्करण 2013 और श्याम प्रकाशन , गीतांजलि अपार्टमेंट , 1926 , नाटाणियों का रास्ता , जयपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक से 4. श्री पन्ना लाल सिंह चैहान द्वारा लिखित भ्रांति निवारण और रिसालदार पन्नालाल सिंह स्मृति साहित्य प्रकाशक मंडल , श्री उम्मेद बहुउद्देश्यीय उच्चतर माध्यमिक स्कूल , जोधपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक से 5. रतन लाल मिश्र द्वारा लिखित और अनु प्रकाशन , 958 ,धमाका मार्केट की गली , चैड़ा रस्ता, जयपुर द्वारा प्रकाशित राजा - महाराजा और उनकी पासवानें पुस्तक से 6. आचार्य चतुरसेन कृत गोली से
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